Tuesday, November 23, 2010

बिन्दी का महत्व

 शाम क चार बज कर पैतीस मिनट हुए थे. मैं अल इंडिया रेडियो(क्यूंकि देहरादून मैं कोई और रेडियो चैनल नहीं हैं) से गीत सुन रही थी. मन को फड़का देने वाले गीत क़ि प्रतीक्षा थी. तभी स्वर गूँज उठा "बिंदिया चमकेगी, चूड़ी खनकेगी.....". क्या बात हैं. गीत ने मुझे नए सिरे से बिन्दी के महत्व पर सोचने पर विवश कर दिया. देखने मैं अत्यंत लघु ये बिन्दी हिन्दी अध्यापक - अध्यापिकाओ की दुखती राग हैं. हमारी कलम ने ज़रा सा इसे इधर से उधर डाला नहीं, कि उनका रक्तचाप बड़ा नहीं. एकवचन, बहुवचन, "है" और "हैं" का अंतर समझाते हैं कि उम्र क कारवां गुज़रते चले जातें हैं और हम बंद कानो और अधमुंदी पलकों से गुबार देखते चले जाते हैं. चाहे वे हँसे, चाहे हंस, कंस, पंख और अंत में अंक का डंडा दिखाएँ, हमारी बाला से.

                  कक्षा से बहार कि दुनिया में आएँ. एक ज़माना था जब बच्चे के कान क पीछे या मस्तक पर छोटी सी बिन्दी माँ कि ममता कि कहानी कह जाती थी. विवाहिता के माथे कि बिंदिया उसकी गरिमा थी. आज रंग-बिरंगी, एक दुसरे से होड़ लेती बिंदियाँ प्रसाधन कि दुनिया में इस कदर दमकती हैं जैसे हरिद्वार कि गंगा में संध्या समय बहते हुए नन्हे-नन्हे दीपक. 

               बिन्दी क करिश्मे भी कम नहीं. सखी "उमा बदरी" के नाम पर भूल से बिन्दी डाली तो महाभारत छिड गई. "शंकर" कि बिन्दी हटी तो "शकर" बन कर मित्र इतना बिगड़ा कि दोस्ती में कड़वाहट भर गयी. हमने बोहोत साड़ी बिंदियों क जोड़ से रेखा खीच कर ज्योमेट्री सीखने में समय गुज़ार दिया. पर अंग्रेजो कि समझदारी देखिये, एक फुल-स्टॉप कि बिन्दी लगाई और वाक्य ही ख़त्म. दादा जी बिन्दी को शुन्य के रूप में बताकर योग का अभ्यास करते हैं. कवी बिहारी इसलिए कहते हैं -

"नाम अंक बेंदी दिए, अंक दस गुना होत.
तिए लिलार बेंदी दिए, अगडित होत उदोत".   



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